Thursday, July 27, 2017

उज्जैन स्थित भव्य श्री हरसिद्धि मंदिर - यहाँ पर हर व्यक्ति की पूरी होती है मनोकामना

उज्जैन स्थित भव्य श्री हरसिद्धि मंदिर माता सती के 51 शक्तिपीठों में 13वा शक्तिपीठ


सनातन धर्म में देवी के शक्तिपीठों का महत्व अपरंपार है। खासकर, नवरात्र में यहां भक्तों की भीड़ मां के दर्शन को उमड़ पड़ता है। मां भगवती के 51 शक्तिपीठों में से एक है हरसिद्धि माता शक्तिपीठ। यह शक्तिपीठ मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में है। भूत-भावना महाकालेश्वर की क्रीड़ा-स्थली 'अवंतिका' (उज्जैन) पावन शिप्रा के दोनों तटों पर स्थित है। यहीं पार्वती हरसिद्धि देवी का मंदिर शक्तिपीठ, रुद्रसागर या रुद्र सरोवर नाम से तालाब के निकट है।


माँ हरसिद्धि मंदिर की दीपमाला के दिव्य दर्शन

उज्जैन स्थित भव्य हरसिद्धि मंदिर भारत के प्राचीन स्थानों में से एक है, जो कि माता सती के 51 शक्तिपीठों में 13वां है। हरसिद्धि मंदिर पूर्व में महाकाल एवं पश्चिम में रामघाट के बीच में स्थित है। तंत्र साधकों के लिए यह स्थान विशेष महत्व रखता है, जो कि उज्जैन के आध्यात्मिक और पौराणिक इतिहास की कथाओं में वर्णित भी है।
महाकाल के मंदिर से कुछ दूरी पर है मंदिर

महाकाल के मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर भैरव जी की मूर्तियां हैं। गर्भगृह में तीन मूर्तियां हैं। सबसे ऊपर अन्नपूर्णा, मध्य में हरसिद्धि तथा नीचे माता कालका विराजमान हैं। इस मंदिर का पुनर्निर्माण मराठों के शासनकाल में हुआ था। यहां दो खंभे हैं जिस पर दीप प्रज्जवलित किए जाते हैं।

देवी के भक्त सच्चिदानंद बताते हैं कि उज्जैन में हरसिद्धि देवी की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। ऐसा इसलिए कि यह ऐसा स्थान है, जहां महाकाल और मां हरसिद्धि के दरबार हैं।

कहते हैं कि प्राचीन मंदिर रुद्र सरोवर के तट पर स्थित था तथा सरोवर सदैव कमलपुष्पों से परिपूर्ण रहता था। इसके पश्चिमी तट पर 'देवी हरसिद्धि' का तथा पूर्वी तट पर 'महाकालेश्वर' का मंदिर था। 18वीं शताब्दी में इन मंदिरों का पुनर्निर्माण हुआ। वर्तमान हरसिद्धि मंदिर चहार दीवारी से घिरा है।
देवी प्रतिमा

मंदिर के मुख्य पीठ पर प्रतिमा के स्थान पर 'श्रीयंत्र' है। इस पर सिंदूर चढ़ाया जाता है, अन्य प्रतिमाओं पर नहीं और उसके पीछे भगवती अन्नपूर्णा की प्रतिमा है। गर्भगृह में हरसिद्धि देवी की प्रतिमा की पूजा होती है। मंदिर में महालक्ष्मी, महाकाली, महासरस्वती की प्रतिमाएँ हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर बावड़ी है, जिसके बीच में एक स्तंभ है, जिस पर संवत 1447 अंकित है तथा पास ही में सप्तसागर सरोवर है।

दीप स्तंभ

मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते ही सामने मां हरसिद्धि के वाहन सिंह की विशाल प्रतिमा है। द्वार के दाईं ओर दो बड़े-बड़े नगाड़े रखे हैं, जो प्रातः सायं आरती के समय बजाए जाते हैं। मंदिर के सामने दो बड़े दीप स्तंभ हैं। इनमें से एक का नाम 'शिव' है, जिसमें 501 दीपमालाएँ हैं, दूसरे स्तंभ का नाम पार्वती है जिसमें 500 दीपमालाएँ हैं तथा दोनों दीप स्तंभों पर दीपक जलाए जाते हैं। कुल मिलाकर इन 1001 दीपकों को जलाने में एक समय में लगभग 45 लीटर तेल लग जाता है और सब मिलाकर इस काम पर एक समय का खर्च लगभग 7000 रुपये का है, जिसमें कर्मचारियों की मजदूरी भी शामिल रहती है। यह सब कुछ दानी सज्जनों द्वारा प्रायोजित होता है। जिसके लिए यहाँ पर पहले से ही मंदिर प्रबंधक के पास इसकी बुकिंग करवानी पड़ती है।



उज्जयिन्यां कूर्परं व मांगल्य कपिलाम्बरः।


भैरवः सिद्धिदः साक्षात् देवी मंगल चण्डिका।

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार माता सती के पिता दक्षराज ने विराट यज्ञ का भव्य आयोजन किया था जिसमें उन्होंने सभी देवी-देवता व गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया । परन्तु उन्होंने माता सती व भगवान शिवजी को नहीं बुलाया । फिर भी माता सती उस यज्ञ उत्सव में उपस्थित हुईं । वहां माता सती ने देखा कि दक्षराज उनके पति देवाधिदेव महादेव का अपमान कर रहे थे । यह देख वे क्रोधित हो अग्निकुंड में कूद पड़ीं । यह जानकर शिव शंभू अत्यंत क्रोधित हो उठे और उन्होंने माता सती का शव लेकर सम्पूर्ण विश्व का भ्रमण शुरू कर दिया । शिवजी की ऐसी दशा देखकर सम्पूर्ण विश्व में हाहाकार मच गया । देवी-देवता व्याकुल होकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और संकट के निवारण हेतु प्रार्थना करने लगे । तब शिवजी का सती के शव से मोहभंग करने के लिए भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र चलाया था । चक्र से माँ सती के शव के कई टुकड़े हो गए । उनमें से १३वा टुकड़ा माँ सती की कोहनी के रूप में उज्जैन के इस स्थान पर गिरा । तब से माँ यहां हरसिद्धि मंदिर के रूप में स्थापित हुईं ।

इतिहास के पन्नों से यह ज्ञात होता है कि माँ हरसिद्धेश्वरी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य देवी थी जिन्हें प्राचीन काल में ‘मांगलचाण्डिकी’के नाम से जाना जाता था । राजा विक्रमादित्य इन्हीं देवी की आराधना करते थे एवं उन्होंने ग्यारह बार अपने शीश को काटकर माँ के चरणों में समर्पित कर दिया पर आश्चर्यवाहिनी माँ पुनः उन्हें जीवित व स्वस्थ कर देती थी । यही राजा विक्रमादित्य उज्जैन के सम्राट थे जो अपनी बुद्धि, पराक्रम और उदारता के लिए जाने जाते थे । इन्हीं राजा विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत सन की शुरुआत हुई ।

श्री हरसिद्धि मंदिर पूर्व में महाकाल एवं पश्चिम में रामघाट के बीच में स्थित है । बारह मास भक्तों की भीड़ से भरा महाकाल वन उज्जैन का हरसिद्धि शक्तिपीठ ऊर्जा का बहुत बड़ा स्त्रोत माना जाता है । तंत्र साधकों के लिए यह स्थान विशेष महत्व रखता है जो कि उज्जैन के आध्यात्मिक और पौराणिक इतिहास की कथाओं में वर्णित भी है । नवरात्री का त्यौहार यहां खूब धूम-धाम और आस्था के साथ मनाया जाता है । सैकड़ों दीपक एकसाथ नवरात्री के नौ दिन जलाये जाते हैं जिससे अद्भुत और दिव्य दृश्य का निर्माण होता है । हरसिद्धेश्वर उन सभी भक्तों और श्रद्धालुओं की मनोकामना पूर्ण करते हैं जो सच्ची आस्था के साथ इस मंदिर में आते हैं और श्री हरसिद्धेश्वर को अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं ।

श्री हरसिद्धि मंदिर के गर्भगृह के सामने सभाग्रह में श्री यन्त्र निर्मित है । कहा जाता है कि यह सिद्ध श्री यन्त्र है और इस महान यन्त्र के दर्शन मात्र से ही पुण्य का लाभ होता है । शुभफल प्रदायिनी इस मंदिर के प्रांगण में शिवजी का कर्कोटकेश्वर महादेव मंदिर भी है जो कि चौरासी महादेव में से एक है जहां कालसर्प दोष का निवारण होता है ऐसा लोगों का विश्वास है । मंदिर प्रांगण के बीचोंबीच दो अखंड ज्योति प्रज्वलित रहती है जिनका दर्शन भक्तों के लिए शांतिदायक रहता है । प्रांगण के चारों दिशाओं में चार प्रवेश द्वार है एवं मुख्य प्रवेश द्वार के भीतर हरसिद्धि सभाग्रह के सामने दो दीपमालाएँ बनी हुई है जिनके आकाश की और मुख किये हुए काले स्तम्भ प्रांगण के भीतर रहस्यमयी वैभव का वातावरण स्थापित करते हैं । यह दीपमालिकाएं मराठाकालीन हैं । ज्योतिषियों के अनुसार इसका शक्तिपीठ नामकरण किया गया है । ये नामकरण इस प्रकार है- स्थान का नाम १३ उज्जैन, शक्ति का नाम मांगलचाण्डिकी और भैरव का नाम कपिलाम्बर है । इस प्राचीन मंदिर के केंद्र में हल्दी और सिन्दूर कि परत चढ़ा हुआ पवित्र पत्थर है जो कि लोगों कि आस्था का केंद्र है ।

हरसिद्धि मंदिर महाकाल के पास हरसिद्धि मार्ग पर स्थित है । यहां आने के लिए सिटी बस उपलब्ध है और लगभग सभी श्रद्धालु जो महाकाल दर्शन को आते हैं वे सभी यहां आकर अपनी मनोकामनाओं कि पूर्ति हेतु दर्शन लाभ लेते हैं एवं अपने तन तथा मन को शुद्ध करते हैं ।

विक्रमादित्य ने मां हरसिद्धेश्वरी देवी को 11 बार अपना सिर काट कर चढ़ाया था

मां हरसिद्धेश्वरी सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य देवी थीं, जिन्हें प्राचीन काल में ‘मांगल-चाण्डिकी’ के नाम से जाना जाता था। राजा विक्रमादित्य इन्हीं देवी की आराधना करते थे। यहां राजा विक्रमादित्य अमावस की रात को विशेष अनुष्ठान करते थे और देवी को प्रसन्न करने के लिए अपना सिर चढ़ाते थे, पर हर बार उनका सिर जुड़ जाता था। उन्होंने 11 बार अपने शीश को काटकर मां के चरणों में समर्पित कर दिया था, लेकिन हरबार मां उन्हें जीवित कर देती थीं। बताते हैं कि यह वह स्थान है, जहां आने वाले हर व्यक्ति की मनोकामना पूरी होती है।


संध्या आरती का विशेष महत्व

कहते हैं कि माता हरसिद्धि को राजा विक्रमादित्य स्वयं गुजरात से लाये थे। इसलिए माता हरसिद्धि सुबह गुजरात के हरसद गांव स्थित हरसिद्धि मंदिर जाती हैं। रात्रि विश्राम के लिए शाम को उज्जैन स्थित मंदिर आती हैं, इसलिए यहां संध्या आरती का महत्व है।

किंवदंती है कि माता हरसिद्धि सुबह गुजरात के हरसद गाँव स्थित हरसिद्धि मंदिर जाती हैं तथा रात्रि विश्राम के लिए शाम को उज्जैन स्थित मंदिर आती हैं, इसलिए यहां की संध्या आरती का विशेष महत्व है। माता हरसिद्धि की साधना से समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इसलिए नवरात्रि में यहां साधक साधना करने आते हैं।

मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुँआ है तथा मंदिर के शीर्ष पर एक सुंदर कलात्मक स्तंभ है। इस देवी को स्थानीय लोगों द्वारा बहुत शक्तिशाली माना जाता है।

कहते हैं कि प्राचीन मंदिर रुद्र सरोवर के तट पर स्थित था तथा सरोवर सदैव कमलपुष्पों से परिपूर्ण रहता था। इसके पश्चिमी तट पर 'देवी हरसिद्धि' का तथा पूर्वी तट पर 'महाकालेश्वर' का मंदिर था। 18वीं शताब्दी में इन मंदिरों का पुनर्निर्माण हुआ। वर्तमान हरसिद्धि मंदिर चहार दीवारी से घिरा है।

प्रसंगवश हरसिद्धि देवी का एक मंदिर द्वारका (सौराष्ट्र) में भी है। दोनों स्थानों (उज्जयिनी तथा द्वारका) पर देवी की मूर्तियाँ एक जैसी हैं। इंदौर से 80 किलोमीटर दूर पुणे मार्ग पर स्थित उज्जैन प्राचीन काल से ही तीर्थस्थल रहा है।

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